वो डरावना सफर
यूं तो मुझे यात्राओं से बड़ा लगाव है और जब मौका और साथी मिले घूमने निकल जाना मेरी प्राथमिकता रहती है, और दोपहिया, चारपहिया जैसे बन पड़े मौके निकालते रहते हैं, पर आज से लगभग 6, 7 वर्ष पहले की मेरी उत्तराखण्ड के पहाड़ी क्षेत्रों की ज्यादातर यात्राऐं बाइक से ही रहती थी। इसमें एक आजादी सी लगती थी जैसे प्रकृति और हमारे बीच कोई दीवार, कोई छत कुछ ना हो। वैसे हर सफर की अपनी एक याद होती है पर कई बार ऐसी घटनायें हो जाती हैं कि विशेष प्रसंग आने पर बार बार उनकी याद आ जाती है। मै भी अक्सर अपने कई मित्रों को डर लगने की बात पर ये सफरनामा सुना चुका हूं आज सोच रहा हूं कुछ अनुभव लिख भी लेने चाहिये। 20 के आस पास की उम्र में हम बहुत सारी यात्राऐं बिना जाने सोचे ही कर लेते थे। बात जून 2007 की है मैं अल्मोड़ा में कमरा लेकर रहता था, एल0एल0बी0 कर रहा था। मेरा पुराना साथी लब्बू जिसका परिवार उस समय पिथौरागढ में रहता था, अल्मोड़ा आया और मुझसे बोला यार मुझे पिथौरागढ जाना है तू भी चल तेरी बाइक में चलते हैं। मुझे पता था उसका गांव मुन्स्यारी में है जहां जाने का मैं काफी समय से प्लान बना रहा था, मुझे लगा मौका भुना लिया जाये। मैंने कहा हां, पर वहां से मुन्स्यारी भी चलेंगे। वो तैयार हो गया। मुन्स्यारी की दूरी का कुछ आइडिया हम दोनों को नहीं था ना ही हमने किसी से पूछा, हां पिथौरागढ का पता था कि 100 किमी0 के आसपास है। वो इसलिये भी तैयार हो गया था कि उसको बाइक चलानी नहीं आती थी और बंद गाड़ी में पहाड के सफर में उल्टी हो जाती थी, और खुली हवा के सफर के मजे भी लेने थे। खैर दोनों की अपनी अपनी मजबूरियां और अपने अपने अरमान थे, पर प्लान का सांचा सही बैठ रहा था। हां हो गई और दोनों ने घर वालों को फोन से खबर कर दी।
अगले दिन सुबह सुबह 6.30- 7.00 बजे के आसपास हम निकल पड़े। रास्ते का हमारा वर्जन ये था कि जहां रोड कटे आस पास जो दिखे पूछ के चलते रहो। नाश्ता जागेश्वर के पास किया और खाना भी रास्तें में ही खा लिया। शाम को पिथौरागढ बाजार में घूमते रहे कुछ मित्र भी मिल गये, उनसे भी हाल समाचार लिया, फिर अगले दिन उसे कुछ काम था तो मजबूरन पिथौरागढ ही रूकना पड़ा, इसी बीच पता किया तो पता चला कि मुन्स्यारी तो यहां से लगभग 125 किमी है। मैंने ऐसी कल्पना नहीं की थी, मुझे लगा था होगा पिथौरागढ से 20-25 किमी0। लब्बू भी शायद एक ही बार बचपन में गया था तो उसे भी कुछ पता नहीं था। चलो जो भी है अब आ गये हैं तो जा के ही आते हैं ये सोच के अगले दिन सुबह का प्लान बनाया और अगले दिन सुबह सुबह गाड़ी में तेल भरा के हम निकल गये अपने सफर में। एक साइबर शाॅट कैमरे का जुगाड़ भी हमने अपने दोस्त से काफी समझौतों के बाद कर लिया था। थल बिर्थी कालामुनी होते हुए हम शाम से पहले पहले मुन्स्यारी पंहुच गये। वहां एक मित्र के घर पर रूकने की व्यवस्था थी। जहां मुर्गे की व्यवस्था थी और साथ में सीडी प्लेयर में हासिल मुवी की सीडी चलाई गई जिसमें इरफान खान के डायलाॅग काॅलेज वालों में बड़ी चर्चा में थे, मैंने तो पहली बार वहीं देखी। पर उन द्वाराहाट इंजीनियरिंग काॅलेज वाले लड़कों में उस मूवी का बड़ा क्रेज मुझे महसूस हुवा। कुल मिलाकर हम 2,3 दिन वहां रूके और बढिया घुमे फिरे। काफी अच्छे मित्र वहां बने। आखिर वापसी का दिन आया, रात से लगातार बारिश थी, सुबह भी हम देखे थे कि कब बारिश कम हो और कब हम निकलें। 10-11 बजे तक बारिश कम नहीं हुई तो राजू भाई जिनकी बाजार में कपड़े की दुकान थी ने एक उपाय निकाला और एक बड़ी सी पन्नी में दो गोले जैसे काट कर सिर निकालने की जगह बना दी ताकी सिर पर हेलमेट पहनने के बाद हम बारिश में भीगने से बच जायें। डूबते को तिनके का सहारा भी बहुत। खुशी खुशी हम पन्नी के अंदर घुस गये। लगभग 12 बजे के आसपास हम मुन्स्यारी से पिथौरागढ के लिए निकल गये मगर इस बार हमने दूसरा रास्ता लिया और वाया मदकोट का रास्ता पकड़ा। इस वृतांत की वास्तविक शुरूआत यहीं से है।
हमारे सफर शुरू करने लगभग आधे घंटे बाद ही बारिश बंद हो गयी और वो पन्नी के अंदर से बाइक चलाना भी बरदास्त के बाहर हो रहा था तो पन्नी उतार ली और फोल्ड करके रख ली। बारिश के बाद घाटी में जगह जगह झरने फूट चुके थे हम लोग भी हर दृश्य का पूरा लुत्फ उठाते हुए हर मोड़ पर फोटो खींचते खींचाते चल रहे थे। हमें लगा हम तेज चल कर टाइम कवर कर लेंगे और शाम तक पंहुच ही जायेंगे। पर शायद हम वादी की खूबसूरती में ज्यादा ही डूब गये और शाम 5 बजे तक लगभग 50 किमी0 ही चले थे।ं जब घड़ी में टाइम देखा तो हकीकत समझ आयी कि अंधेरा होने को है पूरा रास्ता जंगल से होकर है, बरसात का मौसम है हम पहली बार इस रास्तें पर चल रहे हैं, हमें रास्ते का भी पता नहीं है और हम बाइक से सफर कर रहे हैं। अब मैं तेज चलना चाह रहा था पर चला नहीं सकता था क्योंकी रास्तें में कीचड़ हो रखा था और कोहरे से भी मुश्किल होने लगी थी। फिर धीरे धीरे अंधेरा छाने लगा हमें पता नहीं था रोड सही है या नहीं क्योंकी साइनबोर्ड भी बहुत कम लगे थे। बाइक की लाइट भी जला ली थी। एक जगह की मुझे याद है जहां से जौलजीवी को रोड कटती है वहां पर अंधेरा गहरा चुका था। बाकी हमें कुछ पता नहीं था हम कहां को चल रहे है। अब इस समय हम दोनों की बातचीत भी कम ही हो रही थी क्योंकी बात करने से ध्यान भंग होता है और हम दोनों ऐसा नहीं चाहते थे।
फिर शुरूआत हुई रात की। दूर दूर तक कोई बल्ब तो दूर आग या रोशनी की कोई किरन कोई भी नहीं दिख रही थी। इसी बीच सड़क के किनारे एक बुजुर्ग जाते दिखे जो बीड़ी फूंकते हुए चले जा रहे थे। एक बार मैंने सोचा रास्ते का पूछ लूं फिर सोचा क्या पूंछू सीधा ही रास्ता चल रहा है काफी पहले से। काफी आगे आकर मैने यूंही पूछ लिया यार ये कहां जा रहा होगा, यहां तो कोई आबादी भी नहीं है।ना ही इसके पास इतने अंधेरे में कोई टार्च है। वो बोला कहीं रहते होंगे लोग आइड साइड में।
मुझे भी ऐसा ही लगा। बिना ध्यान दिये हम चलते रहे। उस अंधेरी रात के जंगली सफर को कहीं घना कोहरा तो कहीं सड़क में फैला कीचड़ हमारी रफ्तार को बार बार थाम दे रहा था उस पर एकाध लोकल टैक्सी सामने से आये भी तो इस कदर रफतार से की सामने वाला वैसे ही लड़खड़ा जाये। कभी कभार कहीं दूर कोई बल्ब की रोशनी दिख जाती तो थोड़ी तसल्ली हो जाती थी। मगर हमें अभी भी पता नहीं था कि हम सही सड़क पर हैं या नहीं। फिर शुरू इुआ घने कोहरे का दौर। जंगल में बारिश के बाद वैसे भी कोहरा लग ही जाता है पर अंजान सड़क में रात में दोपहिया पर रपटीली सड़क पर कोहरे में घिर जाना ये एहसास जो मुझे उस दिन हुआ शायद में कभी भूल सकता। मेरी बाइक में एक्सीलेटर कम करने के साथ ही हेडलाइट भी कम हो जाती थी और लाइट भी आजकल की हेडलाइटों जितनी तेज ना थी। इस कमी का मुझे उसी रात एहसास हुआ। छोटी छोटी बातें जिन्हें हम नजरअंदाज करते रहते हैं अचानक एक पल में ही सबसे बड़ी समस्याऐं बन कर सामने आ जाती हैं। इस कोहरें में मैं जैसे तैसे चल रहा था पर फिर एक ऐसा क्षण आया जिसमें पता नहीं मुझे ऐसा लगा कि बस यही अंतिम क्षण है।
कोहरा घना होता गया और इतना घना हो गया कि बाइक के एक दो मीटर आगे भी दिखना बंद हो गया। गाड़ी ढलान में थी और आगे बिल्कुल नहीं दिख रहा था मैं एक्सीलेटर नहीं दे सकता था क्ल्च दबा के गेयर डाउन करने में, क्लच दबने के दौरान लाइट कम हो जानी थी, पांव में डर के मारे जमीन पर रख नहीं सकता था। पता नहीं क्यूं अनगिनत पुरानी बातें मेरे आगे उन क्षणों में घूम सी गई। मैंने मन में भगवान का नाम लिया और क्ल्च दबा कर पहला गियर डाल दिया। मुझे लगा अगर ये गाड़ी यहां बंद हो गयी तो शायद मेरी सांसे भी बंद हो जायेंगी और बिना रोड दिखे मैं चलता रहा तो जाने किस पल कहां चले जायें। आजू बाजू में खाई थी या समतल, पैराफिट थे या पेड़ मुझे कुछ पता नहीं था। जहां मैं चल रहा हूं वो रोड है भी या नहीं मुझ कुछ पता नहीं था। मैंने शायद जिंदगी में इतनी डर और घबराहट कभी महसूस नहीं की जितनी उन 3-4 मिनटों में की। वो सिहरन इतनी गहरी थी कि मुझे गाड़ी रोक सकने की हिम्मत ना थी। अब जब मैंने क्ल्च दबा ही दिया था तो मैं दबे क्ल्च में ही ज्यादा लाइट के लिए एक्सीलेटर देते देते और रफ्तार घीमी करने के लिए ब्रेक लगाते लगाते, ढलान में गाड़ी को धीमे से धीमे चलाकर घुप्प कोहरे में रोड ढूंढकर चलने का असफल प्रयास कर रहा था। कुछ मिनटों की उन परिस्थितयों ने मेरी सोच को शून्य कर दिया था और भगवान का नाम लेकर बस रोड देख लेने की कोशिश कर रहा था। जल्दी ही कोहरा थोड़ा धुंधलाया और कुछ कुछ रास्ता दिखने लगा, मैं थोड़ा किनारे की ओर था पर रोड पर ही था। कोहरा छंटने पर लगा मैं किसी की गिरफ्त से बाहर निकला हूं। हम दोनों में इस बीच कोई बात नहीं हुई। थोड़ी दूरी पर हमें एक ट्रक भी पिथौरागढ की ओर जाते हुए दिखा। मुझे ऐसा लगा जैसे मेरी मन्नत पूरी हो गई हो, अब इस अजीब भयावह सफर में एक साथी मिल चुका था, जो कि हौंसला बढाने के लिए काफी था। मन में इस तसल्ली के साथ की अब तो कोई डर की बात नहीं, मैंने लब्बू से कहा यार वो देख, ट्रक। चलो कोई तो मिला, इस वीराने में। वो बोला -हां यार, अब आगे पीछे ही चलते हैं इसके। कुछ घंटों में ही इतना कुछ झेल लेने के बाद मैंने भी यही सोचा था कि चाहे ये 10 किमी/घंटा की स्पीड पर ही क्यों ना चले मैं इसके पीछे ही चलूंगा। हम दोनों की थोड़ी ताकत वापस आ गई।
अभी मुश्किल से 3-4 किमी0 ही चले होंगे तो देखा एक छोटी सी बाजार पड़ी और एक छोटे से ढाबे में वो ट्रक रूक गया। वो अंदर चला गया। हमारे पास भी और कोई चारा नहीं था। हमने भी बाइक साइड लगा दी वहीं 1-1 चेयर में बैठ गये। खाना खाने की इच्छा नहीं थी समय शायद 9.30 हो गया था। ट्रक वाला कभी सिगरेट पी रहा था कभी यहां वहां घूम रहा था आखिरकार मैंने पूछ ही लिया- दाज्यू पिथौरागढ जा रहे हो क्या? वो बोला- ना ना, मैं तो आज यहीं रूकुंगा। मन तो ऐसा हुआ कि उससे रिक्वेस्ट कर लो कि दाज्यू थोड़ा सा ही है, अब यहां क्या रूकते हो वहीं चलो। पर अब कहना सुनना कुछ शेष नहीं था। हम दोनों ने एक दूसरे को देखा कि इतना टाइम और बर्बाद कर लिया। दुकान के पैसे दिये और पूछा तो पता चला कि अब शायद 20-25 किमी और है। अब हम दोनों में बात करने की ताकत थोड़ी देर के लिए लौट आयी थी। अब मुझे चिन्ता थी एक स्थान विशेष की जहां पर मुन्स्यारी जाते समय मैंने देखा था बहुत लाल मिट्टी वाला कीचड़ भरा था जिसमें बाइक बार बार फिसल रही थी पर वो पिथौरागढ के आसपास की ही जगह थी तो आने में थोड़ा टाइम बचा था। अब इसी उम्मीद में की जल्दी ही पंहुच ही जायेंगे हम फिर चल पड़े। उस कस्बे से शायद 2-3 किमी0 आगे पंहुचने पर जब लाइटें दिखनी फिर बंद हो गई तो एक मोड़ पर मुझे कोहरे का एक बादल हमसे कुछ ऊंचाई पर उड़ता हुआ सा दिखा, थोड़ा आगे जाने पर भी वो फिर दिखा तो मैंने लब्बू से कहा- ‘ये बादल देख ना कितने पास जैसे उड़ रहा है।‘ उसने हां हां कह दिया। अब इसके बाद मैंने जब दो तीन बार ऊपर की ओर देखा तो उस बादल के टुकड़े को उसी तरह थोड़ी दूरी पर उड़ता पाया, अब उस ओर देखने की मेरी इच्छा नहीं हो रही थी या फिर कहें तो हिम्मत ही नहीं हो रही थी। मैं लब्बू से एक दो बार पूछा अभी भी दिख रहा है क्या। कई मोड़ पार कर लेने के बाद भी मैंने उसे वैसे ही उतने ही पास देखा तो अब बात करने की हिम्मत भी चली गई थी। बस मैं यंत्रवत गाड़ी चलाये जा रहा था। थोड़ी दूर जाने पर जब ऊपर की ओर कुछ नहीं दिखा तो मैंने लब्बू से कहा भाई कोई बात कर ले या कोई गाना ही गा दे। फिर उसने पता नहीं कौन सा गाया पर गा दिया। बाद में उसने बताया कि इस समय पर उसे गाने के नाम पर ‘आती है रात ओढे हुए दर्द का कफन‘ वाला गाना ही याद आ रहा था। पर शुक्र है उसने कोई दूसरा गाना गा दिया था। अब पिथौरागढ दिखने लगा था और शायद यहां ज्यादा बारिश नहीं हुई थी क्योंकी वो फिसलनदार मिट्टी वाली जगह पर गाड़ी आराम से निकल गई। मंजिल दिखते ही भगवान का शुक्र अदा किया और लगभग 11.000 बजे हम अपनी मंजिल पर पंहुच गये। बाद में पता चला की उस रास्ते पर जंगली जानवर भी अक्सर दिखते रहते हैं हमारी खुशकिस्मती थी कि हमारे साथ ऐसा कुछ नहीं हुआ पर हम शायद खुशकिस्मत इसलिए भी थे क्योंकी अगले दिन गाड़ी 2,3 किमी0 ही चली होगी की तेल खत्म हो गया था अब मुझे ये सोचकर सिहरन हो गई कि अगर ये तेल कल रात को ही रास्ते में खत्म हो जाता तो शायद पता नहीं क्या होता।
जो भी हो आज भी लगभग 14 साल बाद मैं जब इस सफर को याद करता हूं तो एक अजीब सी सनसनी शरीर में दौड़ जाती है। सोचा आज आपसे साझा कर लूं।फोटो भी ऑरकुट से ढूंढ कर निकाली हैं।