कहानी कठपुड़ियों की
हमारे पहाड़ों में कठपुड़िया नाम काफी प्रचलित है। वैसे तो कठपुड़िया नाम की जगहें भी हैं पर यहां पर बात जंगल में बनाई गई उन जगहों की हो रही है जहां पर लकड़ियां फेंकी जाती थी। पहली बार अपने गांव के पास के जंगल जाने पर मुझे बताया गया था कि ये कठपुड़ि है यहां से जब भी गुजरो तो एक आध लकड़ी डाल जाना। 2-3 कि0मी0 आगे जाने पर फिर एक जगह आयी जहां से एक रास्ता गिरेछिना, सोमेश्वर को और दूसरा रास्ता गणनाथ और मल्लिका मंदिर को जाता है वहां पर भी सबने लकड़ी फेंकी। इसके अलावा भी कहीं कहीं पर ऐसी जगहें मिली। पिताजी और साथ में आये सयानों ने बताया कि ‘ये जो कठपुड़ि बनाये गये हैं ये रात में सफर करने वाले राहगीरों के लिए होते हैं।‘ अब तो काफी कमी आ गई है पर कुछ समय पहले तक पहाड़ों में अधिकतर आना जाना चाहे वो रिश्तेदारी में हो या कहीं काम से इन जंगलों वाले रास्तों का ही सहारा होता था। भिटौली, निमंत्रण, शादी ब्याह बारात सब इसी रास्ते होते थे। एक दातुली, लठ्ठी और छिलुक ही इन रास्तों में जानवरों या खतरों से बचने का उपाय होता था। उस समय ये रास्ते ही हमारे हांईवे हुआ करते थे। कई बार लम्बे सफर में जब रास्तों में रात हो जाये तो इन राहगीरों को कठपुड़ियों का बड़ा सहारा रहता था। ये एक तरह से विश्राम स्थल होते थे। आने जाने वाले लोगों द्वारा एक जगह पर इकठ्ठी की गई इन लकड़ियों को ये पथिक रात के समय उपयोग करते थे। थोड़ी देर विश्राम के लिए इन एक जगह इकठ्ठी लकड़ियों से आग जला कर खाना भी बनाया या खाया जा सकता था किसी का इन्तजार किया जा सकता था और आगे के फिर अन्धकार भरे जंगली रास्ते के लिए मशाल या छिलुक तैयार किया जा सकता था ताकि जानवर दूर रहें। ये बातें आज के आधुनिक समाज या नई पीढी जिन्होने कभी जंगलों का सफर नहीं किया हों, को काल्पनिक सी लग सकती हैं। वैसे गलती नई पीढी की नहीं है हम लोगों ने ही प्रकृति से लगाव इतना कम कर दिया है कि घर के आंगन में सब्जी और पौधे लगाना ही प्रकृति को हमारा सबसे बडा सहयोग हो चुका है, तो हम जैसे मनी प्लांट के साथ ग्रीन इंडिया हैशटैग की सैल्फी लेने वालों से किसी ने सीखना भी क्या लेना है। कुछ दिन पहले जब मैं कई महिनों के समयान्तराल के बाद जब अपने जंगल काफल तोडने के बहाने घूमने के लिए गया तो जाने क्यों अभी भी, फिर हर बार किसी कठपुड़ि को देखते ही मन के अंदर का बच्चा जाग जाता और आसपास से लकड़िया उठा कर डाल देता था। शायद बार बार वही बात दिमाग में घूम जाती कि अगर रात मंे किसी ने इस रास्ते आना हुआ तो .........। वैसे एक बार मैंने और कुछ साथियों ने भी एक मेले से पैदल आते समय एक कठपुड़िया मैं थोड़ी देर आग तापी थी। पहले जमाने में मजबूरी थी और इस जमाने में शौक या फिर कुछ अपने पहाड़ की प्रथाओं से प्यार। जो भी हो जंगल में इंसानियत तो इन लकड़ियों के माध्यम से दिख ही जाती थी जो लकड़िया हम किसी और के उजाले के लिए इकठ्ठा कर रख जाते थे। कुछ बातें दिल में घर कर जाती हैं मेरे लिए उन्हीं में से एक है ये कठपुड़िया की कहानी।